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"अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः।
मज्जन्त्यविचेतसः"।।
(ऋग्वेदः--9.64.21)

ऋषिः--काश्यपः।
देवताः--पवमानः सोमः।
छन्दः--विराड् गायत्री।
स्वरः---षड्जः।

शब्दार्थः----(वेनाः) विद्वान्, आस्तिक, देवभक्त,(अभि) दिन के दोनों ओर प्रातः-सायम्, (अनूषत) उस प्रभु का स्तवन करते हैं, यह स्तवन ही उन्हें वासनाओं से बचाता है। (प्रचेतसः) ज्ञानी पुरुष, (इयक्षन्ति) यज्ञों को करने की कामना वाले होते हैं, (अविचेतसः) नासमझ लोग न स्तवन करते हैं, ना ही यज्ञों को करने की कामना वाले होते हैं, नास्तिक लोग, अतः ये विषयों में फँसकर वीर्य नाश कर संसार सागर में (मज्जन्ति) डूब जाते हैं, पतित होते हैं।

व्याख्याः---इस मन्त्र में आस्तिकों और नास्तिकों का अन्तर बतलाया गया है। दोनों के भविष्य का भी संकेत किया है। आस्तिक लोग यज्ञ करते हैं, ईश्वर-उपासना करते हैं, ज्ञानवान् होते हैं, अत एव वे सदा उन्नति करते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।

दूसरी ओर नास्तिक लोग संध्या, यज्ञ आदि से दूर रहते हैं, इतना ही नहीं वे इन धार्मिक कृत्यों से घृणा करते हैं, परमात्मा को नहीं मानते, इसलिए उसकी उपासना भी नहीं करते हैं, स्वार्थ में लिप्त रहते हैं। वे विद्या और शिक्षा से रहित होते हैं। इसलिए उन्हें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ज्ञान नहीं रहता। इसी कारण वे लगातार पतन की ओर अग्रसर रहते हैं। अन्ततः उनका विनाश होता है, और वे सुख-शान्ति से वंचित रहते हैं।

हमें सदैव परमात्मा का ध्यान रखना चाहिए और उसकी उपासना करनी चाहिए।

इत्योम् शम्





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