वैदिक-संस्कृत की झलक

वैदिक-संस्कृत की झलक 


तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।
यजुर्वेद 31.7
परमात्मा ने सृष्टि की रचना की। उसके संविधान के लिए चार वेदों का प्रकाश किया। अग्नि ऋषि के हृदय में ऋग्वेद, वायु ऋषि के हृदय में यजुर्वेद, आदित्य ऋषि के हृदय में सामवेद और अङि्गरा ऋषि के हृदय में अथर्ववेद ज्ञान दिया। इन चारों ऋषियों से ब्रह्मा ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। ब्रह्मा से इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने वेद विद्या ग्रहण की। भरद्वाज से वेद विद्या तपोमूर्ति ब्राह्मणों को मिली। ब्राह्मणों ने जग के कल्याण के लिए सामान्य लोगों में वेद विद्या का प्रचार किया।

वैदिक वाङ्मय को चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है- संहिता, ब्राहमण, आरण्यक और उपनिषद्। तद्यथा- मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। यहाँ पर ब्राह्मण से ब्राहमण सहित आरण्यक और उपनिषद् भी गृहित है।

आचार्य सायण ने वेद से अभिप्राय निकाला है-इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः।
अर्थात् इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार का अलौकिक उपाय बताने वाला ग्रन्थ वेद है।

ऋषि दयानन्द के अनुसार-विदन्ति जानन्ति,विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दते विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते वेदाः। तथ आदिसृष्टिमारभ्याद्यापर्यन्तं ब्रह्मादिभिः सर्वाः सत्यविद्याः श्रूयन्ते अनया सा श्रुतिः।
अर्थात् जिनके पढने से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनको पढ के विद्वान् होते है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनसे ठीक-2 सत्य-असत्य का विचार मनुष्यों को होता है, इससे ऋक् संहितादि का नाम वेद है।
वैसे ही सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त और ब्रह्मादि से लेकर हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं इससे वेदों का श्रुति नाम पडा है।

ऐसा माना जाता है कि वेदों में सभी प्रकार का ज्ञान-विज्ञान है-सर्वज्ञानमयो हि सः- मनु।

जो वेद की निन्दा करता है उसे नास्तिक कहा जाता है- नास्तिको वेदनिन्दकः- मनुः।

वेदों का रचनाकालः--
मैक्समूलर ने ईसा से 800-600 वर्ष पूर्व माना है।
ऋषि दयानन्द ने वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आदि में माना है। तदनुसार 1,97,29,49,113 वर्ष हुए हैं।

ह्विटनी और केगी के अनुसार वेदों का समय 2000-1500 ई.पू. है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार 4000-2500 ई.पू. है।

प्रो. जैकोबी के अनुसार 4500-2500 ई.पू. है।

दीनानाथ शास्त्री के अनुसार आज से लगभग तीन लाख वर्ष पूर्व है।


<<<<<<<<<<<<<<<<<वैदिक-वाङ्मय>>>>>>>>>>>>>>>>>>


*******वेद******
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

*****उपवेद******
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थवेद।

विस्तृत परिचय वेदः----
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!!!---: ऋग्वेदः---!!!
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ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ हैं- एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्। इनमें से उपलब्ध पाँच शाखाएँ---शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन।

"ऋक्" का अर्थ हैः--स्तुतिपरक-मन्त्र। "ऋच्यते स्तूयतेsया इति ऋक्।" जिन मन्त्रों के द्वारा देवों की स्तुति की जाती है, उन्हें ऋक् कहते हैं। ऋग्वेद में विभिन्न देवों की स्तुति वाले मन्त्र हैं, अतः इसे ऋग्वेद कहा जाता है। इसमें मन्त्रों का संग्रह है, इसलिए इसे "संहिता" कहा जाता है। संहिता सन्निकट वर्णों के लिए भी कहा जाता है, ऐसा पाणिनि का मानना हैः--"परः सन्निकर्षः संहिता।" (अष्टाध्यायी--1.4.109)

ऋक् शब्द की दार्शनिक-व्याख्याः---
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ऋक् भूलोक है, (अग्नि देवता प्रधान)। यजुः अन्तरिक्ष-लोक है, (वायु-देवता-प्रधान)। साम द्युलोक है। (सूर्य-देवता-प्रधानः---"अयं (भूः) ऋग्वेदः।" (षड्विंश-ब्राह्मणः--1.5)

अत एव अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, आदित्य से सामवेद और अङ्गिरा से अथर्ववेद की उत्पत्ति बताई गई है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तीनों वेदों में तीनों लोकों का समावेश है।

यजुर्वेद में इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की गई हैः--ऋग्वेद वाक्-तत्त्व (ज्ञान-तत्त्व या विचार-तत्त्व) का संकलन है। यजुर्वेद में मनस्तत्त्व (चिन्तन, कर्मपक्ष, कर्मकाण्ड, संकल्प) का संग्रह है तथा सामवेद प्राणतत्त्व (आन्तरिक-ऊर्जा, संगीत, समन्वय) का संग्रह है। इन तीनों तत्त्वों के समन्वय से ब्रह्म की प्राप्ति होती हैः---

"ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्रपद्ये।" (यजुर्वेदः--36.1)

ब्राह्मण-ग्रन्थों में इसकी अन्य प्रकार से व्याख्या की गई हैः---
(क) ऋग्वेद ब्रह्म हैः---"ब्रह्म वा ऋक्" (कौषीतकि-7.10)। (ख) ऋग्वेद वाणी है----"वाक् वा ऋक्" (जैमिनीय-ब्राह्मण--4.23.4)। (ग) ऋग्वेद प्राण हैः--"प्राणो वा ऋक्" (शतपथः--7.5.2.12)। (घ) ऋग्वेद अमृत हैः--"अमृतं वा ऋक्" (कौषीतकि--7.10)। (ङ) ऋग्वेद वीर्य हैः--"वीर्यं वै देवता--ऋचः" (शतपथ---1.7.2.20)

चार प्रकार के ऋत्विज्ः----
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यज्ञों के चार प्रकार के ऋत्विक् होते हैंः--(क) होता, (ख) अध्वर्यु, (ग) उद्गाता, (घ) ब्रह्मा । इसका वर्णन ऋग्वेद में आया हैः---

"ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्वः।।"
(ऋग्वेदः--10.71.11)

(1.) होताः---होता ऋग्वेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ में ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ करता है। ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं का पारिभाषिक नाम "शस्त्र" है। इसका लक्षण हैः--"अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः शस्त्रम्।" अर्थात् गान-रहित देवस्तुति-परक मन्त्र को "शस्त्र" कहते हैं।

(2.) अध्वर्युः---अध्वर्यु का सम्बन्ध यजुर्वेद से है। यह यज्ञ के विविध कर्मों का निष्पादक होता है। यह प्रमुख ऋत्विक् है। यज्ञ में घृताहुति-आदि देना इसी का कर्म है।

(3.) उद्गाताः---उद्गाता सामवेद का प्रतिनिधि ऋत्विक् है। यह यज्ञ में देवस्तुति में सामवेद के मन्त्रों का गान करता है।

(4.) ब्रह्माः---ब्रह्मा अथर्ववेद का ऋत्विक् है। यह यज्ञ का अधिष्ठाता और संचालक होता है। इसके निदेशानुसार ही अन्य ऋत्विक् कार्य करते हैं। यह चतुर्वेद-विद् होता है। यह त्रुटियों का परिमार्जन, निर्देशन, यज्ञिय-विधि की व्याख्या आदि करता है।

ऋग्वेद की शाखाएँः----
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पतञ्जलि ऋषि ने ऋग्वेद की 21 शाखाओं काउल्लेख किया हैः--"एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्।" (महाभाष्य--पस्पशाह्निक)। इसमें से सम्प्रति पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध होते हैंः---(1.) शाकल, (2.) बाष्कल, (3.) आश्वलायन, (4.) शांखायन और (5.) माण्डूकायन।

(1.) शाकलः--सम्प्रति यही शाखा उपलब्ध है। इसी का वर्णन विस्तार से आगे किया जाएगा।

(2.) बाष्कलः--यह शाखा उपलब्ध नहीं है। शाकल में 1017 सूक्त हैं, परन्तु बाष्कल में 1025 सूक्त थे, अर्थात् 8 सूक्त अधिक थे। इन 8 सूक्तों का शाकल में संकलन कर लिया गया है। एक "संज्ञान-सूक्त" के रूप में और शेष 7 सूक्त "बालखिल्य" के रूप में समाविष्ट कर लिया गया है। ये 7 सूक्त प्रथम 7 सूक्तों में सम्मिलित किया गया है।

(3.) आश्वलायनः--इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध है।

(4.) शांखायनः---यह शाखा उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसके ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं।

(5.) माण्डूकायनः--इस शाखा का कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं है।

ऋग्वेद का विभाजन क्रमः---
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ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया जाता हैः---(1.) अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र।
(2.) मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र।

(1.) अष्टक-क्रमः--इसमें आठ अष्टक हैं, प्रत्येक अष्टक में आठ-आठ अध्याय हैं, जिनकी कुल संख्या 64 (चौंसठ) है। प्रत्येक अध्याय में वर्ग है, किन्तु इनकी संख्या समान नहीं है। कुल वर्ग 2024 है, सूक्त 2028 बालखिल्य सहित है।

(2.) मण्डलक्रमः----यह विभाजन अधिक सुसंगत और उपयुक्त हैं। इसके अनुसार ऋग्वेद में कुल 10 मण्डल हैं। इसमें बालखिल्य के 11 सूक्तों के 80 मन्त्रों को सम्मिलित करते हुए 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10,552 मन्त्र हैं। जब कभी ऋग्वेद का पता देना हो तब अनुवाक की संख्या छोड देते हैं। सन्दर्भ में मण्डल, सूक्त और मन्त्र-संख्या ही देता हैं, जैसेः---ऋग्वेदः--10.71.11

इसमें अनुवाक सम्मिलित नहीं है।

ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः--
प्रथम-मण्डलः---191,
द्वितीय---43,
तृतीयः--62,
चतुर्थः---58,
पञ्चमः---87,
षष्ठः---75,
सप्तमः--104,
अष्टमः---103,
नवमः---114,
दशमः---191

ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं ।
मण्डलों में अनुवाकः--
प्रथम-मण्डलः--24,
द्वितीयः---04,
तृतीयः---05,
चतुर्थः---05,
पञ्चमः---06
षष्ठ---06,
सप्तमः--06,
अष्टमः--10,
नवमः--07,
दशमः---12 अनुवाक हैं।
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल अनुवाक 85 हैं।

ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल में सूक्तों की संख्याः--
प्रथम-मण्डलः---191,
द्वितीय---43,
तृतीयः--62,
चतुर्थः---58,
पञ्चमः---87,
षष्ठः---75,
सप्तमः--104,
अष्टमः---103,
नवमः---114,
दशमः---191
इस प्रकार ऋग्वेद में कुल सूक्त 1028 हैं।

कुछ प्रसिद्ध सूक्त ये हैं----श्रद्धासूक्त, पुरुष-सूक्त, यम-यमी-सूक्त, उर्वशी-पुरुरवा-सूक्त, नासदीय-सूक्त, वाक्-सूक्त, हिरण्यगर्भ-सूक्त, दान-सूक्त, सरमा-पणि-सूक्त, औषधि-सूक्त, विश्वामित्र-नदी-सूक्त आदि-आदि।

ऋग्वेद में कुल मन्त्रों की संख्या 10,580, कुल शब्द 153826 और कुल अक्षर 432000 हैं।

पतञ्जलि मुनि ने ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से पाँच शाखाओं के नाम उपलब्ध हैः--शाकल, बाष्कल, शांखायन, माण्डूकायन औऱ आश्वलायन। इन पाँच शाखाओं में से केवल एक शाखा उपलब्ध हैः--शाकल-शाखा। बाष्कल-शाखा में 10622 मन्त्र हैं । ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं---ऐतरेय और कौषीतकि (शांखायन) । ऋग्वेद के आरण्यक को ऐतरेय कहते हैं, इसमें पाँच आरण्यक और अठारह अध्याय हैं।

ऋग्वेद के ऋषिः----
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ऋग्वेद के ऋषि और मण्डल निम्न हैः---
मण्डल-------सूक्तसंख्याः------मन्त्र-संख्याः----ऋषिनाम
(1.)प्रथम-----191--------------2006--------मधुच्छन्दाः, मेधातिथिः, दीर्घतमा,अगस्त्य, गौतम, पराशर,
(2.) द्वितीय—43----------------429---------गृत्समद और उनके वंशज
(3.) तृतीय----62-----------------617--------विश्वामित्र और उनके वंशज
(4.) चतुर्थ-----58------------------589------वामदेव और उनके वंशज
(5.) पञ्चम----87------------------727------अत्रि और उनके वंशज
(6.) षष्ठ-------75 ----------------765-------भरद्वाज और उनके वंशज
(7.) सप्तम----104-----------------841------वशिष्ठ और उनके वंशज
(8.) अष्टम-----103----------------1716----कण्व, भृगु, अंगिरस् और उनके वंशज
(9.) नवम-------114----------------1108-----अनेक ऋषि
(10.) दशम-----191-----------------1754----त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा-कामायनी, इन्द्राणी, शची, उर्वशी

मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ ------
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ऋग्वेद में 24 मन्त्र-द्रष्टा ऋषिकाएँ हैं। इनके द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 224 है।
ऋषिका---------------मन्त्रसंख्या-------------सन्दर्भ
(1.) सूर्य सावित्री-------47-----------------10.85
(2.) घोषा काक्षीवती----28--------------10.39,,40
(3.) सिकता निवावरी---20-----------------9.86
(4.) इन्द्राणी-------------17---------------10.86,,145
(5.) यमी वैवस्वती------11------------10.10,,154
(6.) दक्षिणा प्राजापत्या—11----------------10.107
(7.) अदिति----------------10---------------4.18,,10.72
(8.) वाक् आम्भृणी-------8------------------10.125
(9.) अपाला आत्रेयी-------7-------------------8.91
(10.) जुहू ब्रह्मजाया-----7-------------------10.109
(11.) अग्स्त्यस्वसा-------6--------------------10.60
(12.) विश्ववारा आत्रेयी---6---------------------5.28
(13.) उर्वशी-----------------6--------------------10.95
(14.) सरमा देवशुनी--------6---------------------10.108
(15.) शिखण्डिन्यौ अप्सरसौ—6-------------------9.104
(16.) श्रद्धा कामायनी----------5--------------------10.151
(17.) देवजामयः-----------------5-------------------10.153
(18.) पौलोमी शची--------------6--------------------10.159
(19.) नदी------------------------4---------------------3.33
(20.) सार्पराज्ञी--------------------3-------------------10.189
(21.) गोधा-------------------------1-------------------10.134
(22.) शश्वती आंगिरसी------------1-------------------8.1
(23.) वसुक्रपत्नी--------------------1-------------------10.28
(24.) रोमशा ब्रह्मवादिनी-----------1.------------------1.126

ऋग्वेद में छन्दोविधानः-----
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ऋग्वेद में कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें से 7 छन्दों का मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है। ये हैं----
(1.) गायत्री (24 अक्षर),
(2.) उष्णिक् (28 अक्षर),
(3.) अनुष्टुप् (32 अक्षर),
(4.) बृहती (36 अक्षर),
(5.) पंक्ति (40 अक्षऱ),
(6.) त्रिष्टुप् (44 अक्षर),
(7.) जगती (48 अक्षर),
इनमें से त्रिष्टुप्, गायत्री, जगती और अनुष्टुप् छन्दों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। इनका विवरणः----
छन्दनाम--------------मन्त्र-संख्या----------------अक्षर-संख्या
(1.) त्रिष्टुप्------------4258---------------------1,87,312
(2.) गायत्री-------------2456---------------------58,938
(3.) जगती--------------1353----------------------64,944
(4.) अनुष्टुप्-------------860------------------------27,520
(5.) पंक्ति----------------498
(6.) उष्णिक्---------------398
(7.) बृहती------------------371
इस प्रकार ऋग्वेद के लगभग 80 प्रतिशत मन्त्र इन्हीं छन्दों में है।
अन्य छन्दों का विवरण इस प्रकार हैः----
छन्दनाम--------------अक्षर------------------मन्त्र
(8.) अतिजगती-------52--------------------17
(9.) शक्वरी------------56--------------------19
(10.) अतिशक्वरी------60--------------------10
(11.) अष्टि--------------64--------------------07
(12.) अत्यष्टि------------68-------------------82
(13.) धृति-----------------72--------------------02
(14.) अतिधृति-------------76--------------------01
(15.) द्विपदा गायत्री-------16--------------------03
(16.) द्विपदा विराट्---------20-------------------139
(17.) द्विपदा त्रिष्टुप्---------22-------------------14
(18.) द्विपदा जगती----------24--------------------01
(19.) एकपदा विराट्------------10-------------------05
(20.) एकपदा त्रिष्टुप्------------11-------------------01

वेदों का विभाजनः----
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सृष्टि के प्रारम्भ में चारों वेद संहिता रूप में थे। निरुक्तकार दुर्गाचार्य के अनुसार वेदों की संहिता अधिक भारी थी एवं अध्ययन में कष्ट-साध्य थी। अतः सुबोध बनाने की दृष्टि से वेद व्यास (कृष्ण द्वैपायन) ने इनका विभाजन चार वेदों के रूप में कर दियाः----
“वेदं तावद् एकं सन्तम् अतिमहत्त्वाद् दुरध्येयम् अनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु।
सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।” (निरुक्त-टीका—1.20)

वेदों को स्वरूप के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया हैः—पद्य, गद्य और गीति। मीमांसाकार जैमिनि के इसका उल्लेख किया है। (1.) जिन मन्त्रों में अर्थ के आधार पर पाद (चरण) की व्यवस्था है और पद्यात्मक है, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते हैं। ऐसे संकलन को ऋग्वेद कहते हैं----”तेषाम् ऋक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था।” (जैमिनीय सूत्र—2.1.35)

(2.) जिन ऋचाओं का गान होता है और जो गीति रूप है, उन्हें साम कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन सामवेद में किया गया हैः----”गीतिषु सामाख्या।” (पूर्वमीमांसा---2.1.36)

(3.) जो मन्त्र पद्य और गान से रहित है अर्थात् गद्य रूप हैं, उन्हें यजुष् कहते हैं। ऐसे मन्त्रों का संकलन यजुर्वेद में हैं----”शेषे यजुः शब्दः।” (पूर्वमीमांसा—2.1.37)

(4.) अथर्ववेद में पद्य और गद्य दोनों का संकलन हैं, अतः वह इन्हीं तीन भेद के अन्तर्गत आ जाता है।

इस भेदत्रय के कारण वेदों को ”वेदत्रयी” कहते हैं। वेदत्रयी का भाव हृवेदों की त्रिविध रचना।

ऋग्वेद में खिल सूक्तः---
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”खिल” से अभिप्राय है—परिशिष्ट या प्रक्षिप्त। जो अंश या मन्त्र मूल ग्रन्थ में न हो और आवश्यकतानुसार अन्यत्र से संग्रह किया गया हो, उसे खिल कहते हैं। इस समय सम्पूर्ण विश्व ऋग्वेद की बाष्कल शाखा प्रसिद्ध है। शाकल शाखा में कुछ अधिक मंन्त्र थे। जो इस समय उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके कुछ मन्त्र बाष्कल में परिशिष्ट के रूप में गृहीत हैं।

मैक्समूलर के संस्करण में 32 तथा ऑफ्रेख्त के संस्करण में 25 खिल सूक्त हैं। सातवलेकर की ऋक्संहिता में 36 खिल सूक्त हैं।

प्रो. रॉठ की प्रेरणा से डॉ. शेफ्टेलोवित्स ने एक खिल-सूक्त-संग्रह 1906 में ब्रेस्लाड (जर्मनी) से प्रकाशित करवाया। तदनन्तर पूना से सायण ऋग्वेद-भाष्य के प्रकाशित किया गया। चिन्तामणि गणेश काशीकर ने खिल सूक्तों पर विस्तृत विवेचन किया है। 5 अध्यायों में 86 खिल सूक्तों का पाठभेद आदि के साथ इसका विवरण यहाँ प्रस्तुत हैः---

अध्याय----सूक्त--------मन्त्रसंख्या--------------विशिष्ट सूक्त
(1.) -------12----------86 -------------------सौपर्ण सूक्त (11 सूक्त. 84 मन्त्र)
(2.) -------16----------66+70 (अन्य)------श्रीसूक्त (19+21=40 मन्त्र)
(3.) -------22---------137+25 (अन्य)------बालखिल्य (8 सूक्त, 66 मन्त्र)
(4.) -------14----------105+60 (अन्य)------शिवसंकल्प (28 मन्त्र),
(5.) --------22----------370+9 (अऩ्य)-------निविद् 193, प्रैष 64, कुन्ताप 80 मन्त्र)
इस प्रकार कुल सूक्त 86 और कुल मन्त्र 929 हैं।


!!!---: यजुर्वेद :---!!!
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यजुष् (यजुः) का अर्थः---
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यजुष् का अर्थ हैः---(1.) “यजुर्यजतेः” (निरुक्त—7.12) अथार्त् यज्ञ से सम्बद्ध मन्त्रों को यजुष् कहते हैं।

(2.) ”इज्यतेsनेनेति यजुः।” अर्थात् जिन मन्त्रों से यज्ञ किया जाता है, उन्हें यजुष् कहते हैं। यजुर्वेद का कर्मकाण्ड से साक्षात् सम्बन्ध है। इसका ऋत्विक् अध्वर्यु होता है, अतः इसे ”अध्वर्युवेद” भी कहा जाता है। यह अध्वर्यु ही यज्ञ के स्वरूप का निष्पादक होता हैः---”अध्वर्युनामक एक ऋत्विग् यज्ञस्य स्वरूपं निष्पादयति। अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता।” (सायणाचार्य-ऋग्भाष्यभूमिका)

(3.) ”अनियताक्षरावसानो यजुः” अर्थात् जिन मन्त्रों में पद्यों के तुल्य अक्षर-संख्या निर्धारित नहीं होती, वे यजुः हैं।

(4.) ”शेषे यजुःशब्दः” (पूर्वमीमांसा—2.1.37) अर्थात् पद्यबन्ध और गीति से रहित मन्त्रात्मक रचना को यजुष् कहते हैं। इसका अभिप्राय यह भी है कि सभी गद्यात्मक मन्त्र-रचना यजुः की कोटि में आती है।

(5.) ”एकप्रयोजनं साकांक्षं पदजातमेकं यजुः” अर्थात् एक उद्देश्य से कहे हुए साकांक्ष एक पद-समूह को यजुः कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि एक सार्थक वाक्य यजुः की एक इकाई माना जाता है।

तैत्तिरीय-संहिता के भाष्य की भूमिका में सायण ने यजुर्वेद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि यजुर्वेद-भित्ति (दीवार) है और अन्य वेद (ऋक् और साम) चित्र है। इसलिए यजुर्वेद सबसे मुख्य है। यज्ञ को आधार बनाकर ही ऋचाओं का पाठ और सामगान होता हैः----”भित्तिस्थानीयो यजुर्वेदः, चित्रस्थानावितरौ। तस्मात्कर्मसु यजुर्वेदस्यैव प्राधान्यम्।” (सायण)

यजुर्वेद का दार्शनिक स्वरूपः---
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ब्राह्मण-ग्रन्थों में यजुर्वेद का दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया गया है। (1.) यजुर्वेद विष्णु का रूप है, अर्थात् इसमें विष्णु (परमात्मा) के स्वरूप का वर्णन हैः---”यजूंषि विष्णुः” (शतपथ—4.6.7.3) । (2.) यजुर्वेद प्राणतत्त्व और मनस्तत्त्व का वर्णन करता है। अतः वह प्राण है, मन हैः---”प्राणो वै यजुः” (शतपथ—14.8.14.2) । ”मनो यजुः” (शतपथ---14.4.3.12) । (3.) यजुर्वेद में वायु व अन्तरिक्ष का वर्णन है। अतः वह अन्तरिक्ष का प्रतिनिधि हैः--”अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः” (षड्विंश-ब्राह्मण—1.5) । (4.) यजुर्वेद तेजस्विता का उपदेश देता है। अतः वह महः (तेज) हैः--”यजुर्वेद एव महः” (गोपथ-ब्राह्मण, पूर्व---5.15) । (5.) यजुर्वेद क्षात्र-धर्म और कर्मठता की शिक्षा देता है। अतः वह क्षत्रियों का वेद हैः--”यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम्।” (तैत्तिरीय-ब्राह्मण---3.12.9.2)

यजुर्वेद की शाखाएँ---
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यजुर्वेद मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है---(1.) शुक्लयजुर्वेद (2.) कृष्णयजुर्वेद। यजुर्वेद के दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं---(1.) आदित्य-सम्प्रदाय (2.) ब्रह्म-सम्प्रदाय। शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बद्ध है और कृष्णयजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से। शतपथ-ब्राह्मण में इसका उल्लेख हुआ है कि शुक्लयजुर्वेद आदित्य-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और इसके आख्याता याज्ञवल्क्य हैं----”आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि। वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येन आख्यायन्ते।” (शतपथ—14.9.4.33)

शुक्लयजुर्वेद को ही वाजसनेयि-संहिता और माध्यन्दिन-संहिता भी कहते हैं। याज्ञवल्क्य इसके ऋषि हैं। वे मिथिला के निवासी थे। इनके पिता वाजसनि थे, इसलिए याज्ञवल्क्य वाजसनेय कहलाते थे। वाजसनेय से सम्बद्ध संहिता ”वाजसनेयि-संहिता” कहलाई। याज्ञवल्क्य ने मध्याह्न के सूर्य के समय अपने आचार्य वैशम्पायन से इस वेद का ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिए इस ”माध्यन्दिन-संहिता” भी कहते हैं।

भेदः---
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शुक्ल और कृष्ण भेदों का आधार यह है कि शुक्ल यजुर्वेद में यज्ञों से सम्बद्ध विशुद्ध मन्त्रात्मक भाग ही है। इसमें व्याख्या, विवरण और विनियोगात्मक भाग नहीं है। ये मन्त्र इसी रूप में यज्ञों में पढे जाते हैं। विशुद्ध और परिष्कृत होने के कारण इसे शुक्ल (स्वच्छ, श्वेत, अमिश्रित) यजुर्वेद कहा जाता है। इस शुक्लयजुर्वेद की एक अन्य शाखा काण्व-शाखा है।

कृष्णयजुर्वेद का सम्बन्ध ब्रह्म-सम्प्रदाय से है। इसमें मन्त्रों के साथ व्याख्या और विनियोग वाला अंश भी मिश्रित है। अतः इसे कृष्ण (अस्वच्छ, कृष्ण, मिश्रित) यजुर्वेद कहते हैं। इसी आधार पर शुक्लयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”शुक्ल” और कृष्णयजुर्वेद के पारायणकर्ता ब्राह्मणों को ”मिश्र” नाम दिया गया है।

गुरु वैशम्पायन ने अपने शिष्यों को दोनों प्रकार के यजुर्वेद का अध्ययन कराया था। इन्हीं का एक शिष्य तित्तिरि थे, जिन्होंने कृष्णयजुर्वेद का अध्ययन किया था, किन्तु इन्होंने अपनी एक पृथक् शाखा बना ली। उनके नाम से ही तैत्तिरीय-शाखा कहलाई । मैत्रेय ने कृष्णयजुर्वेद की अपनी एक पृथक् शाखा चलाई, जिसका नाम मैत्रायणी पडा। इसी प्रकार कठ और कपिष्ठल भी कृष्णयजुर्वेद की पृथक्-2 शाखाएँ हैं।

(1.) महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक में यजुर्वेद की 101 शाखा का उल्लेख किया हैः--“एकशतमध्वर्युशाखाः”। (2.) षड्गुरुशिष्य ने सर्वानुक्रमणी की वृत्ति में 100 शाखाओं का उल्लेख किया है---”यजुरेकशताध्वकम्।” (सर्वानुक्रमणी)। (3.) कूर्मपुराण में भी 100 शाखाओं का उल्लेख प्राप्त होता है---”शाखानां तु शतेनाथ यजुर्वेदमथाकरोत्।” (कूर्मपुराण—49.51) (4.) इसके विपरीत ”चरणव्यूह” में यजुर्वेद की केवल 86 शाखाओं का ही उल्लेख प्राप्त होता है। उसके अनुसार (क) चरकशाखा की 12, (ख) मैत्रायणी की 7, (ग) वाजसनेय की 17, (घ) तैत्तिरीय की 6, और (ङ) कठ की 44 शाखाएँ हैं---”यजुर्वेदस्य षढशीतिर्भेदाः, चरका द्वादश, मैत्रायणीयाः सप्त, वाजसनेयाः सप्तदश, तैत्तिरीयकाः षट्, कठानां चतुश्चत्वारिंशत्.” (चरणव्यूह—2)।

इस निर्देश से ऐसा प्रतीत होता है कि यजुर्वेद की शाखाएँ क्रमशः लुप्त होती जा रही थीं और चरणव्यूह के समय में केवल 42 शाखाएँ ही उपलब्ध तीं। कठ-शाखा के 44 ग्रन्थों एवं उनके लेखकों के नाम भी लुप्त हो चुके थे। सम्प्रति केवल 6 शाखाएँ ही यजुर्वेद की उपलब्ध हैं। दो शुक्ल की और 4 कृष्ण यजुर्वेद की।

शुक्ल-यजुर्वेदः----
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इसकी दो शाखाएँ उपलब्ध हैं---(1.) वाजसनेयि और (2.) काण्व।
(1.) माध्यन्दिन या वाजसनेयि-संहिताः----इस संहिता में 40 अध्याय और 1975 मन्त्र हैं। इसका ब्राह्मण शतपथ-ब्राह्मण है। इसके अनुसार वाजसनेयि-संहिता में कुल अक्षर 2,88,000 (दो लाख, अठासी हजार) हैं। इस शाखा का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में है। इसका उपनिषद् ईशोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् है।

(2.) काण्व-संहिताः---इसमें 40 अध्याय, 328 अनुवाक और मन्त्र 2086 हैं। इसमें माध्यन्दिन की अपेक्षा 111 मन्त्र अधिक हैं। इसके प्रवर्तक ऋषि कण्व हैं। इनके पिता बोधायन और गुरु याज्ञवल्क्य थेः---”बोधायन-पितृत्वाच्च प्रशिष्यत्वाद् बृहस्पतेः। शिष्यत्वाद् याज्ञवल्क्यस्य कण्वोsभून्महतो महान्।।” इस शाखा का प्रचार महाराष्ट्र प्रान्त में अधिक है। प्राचीन काल में इसका प्रचार उत्तर भारत में भी था। महाभारत आदि-पर्व (63.18) के अनुसार शकुन्तला के धर्मपिता महर्षि कण्व का आश्रम मालिनी नदी (सम्प्रति बिजनौर जिले में कोटद्वार के पास) था। इस प्रकार देखा जाए तो कण्व का सम्बन्ध उत्तर भारत से रहा है।

(2.) कृष्णयजुर्वेदः----
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चरणव्यूह के अनुसार यजुर्वेद की 86 शाखाओं में से शुक्लयजुर्वेद की 17 और कृष्णयजुर्वेद की 69 शाखाएँ हैं। कृष्णयजुर्वेद की चार शाखाएँ सम्प्रति उपलब्ध हैं---(1.) तैत्तिरीय, (2.) मैत्रायणी, (3.) काठक (या कठ), (4.) कपिष्ठल (कठ)। तैत्तिरीय-शाखा के दो मुख्य भेद हैं---औख्य और खाण्डिकेय। खाण्डिकेय के 5 भेद हैः—आपस्तम्ब, बौधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशि और लाट्यायन। मैत्रायणी के भी 7 भेद हैं और चरक (या कठ) के 12 भेद हैं। कठ के 44 उपग्रन्थ भी हैं। इसके उपनिषद् कठोपनिषद् और श्वेताश्वतर है।

(1.) तैत्तिरीय-संहिताः------
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यह कृष्णयजुर्वेद की प्रमुख शाखा है। इसमें 7 काण्ड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक हैं। अनुवाकों के भी उपभेद (खण्ड) किए गए हैं। इसलिए जब पता दिया जाता है तो उसमें चार अंक होते हैं। जैसेः---देवा वसव्या अग्ने सोम सूर्य। (तै.सं. कां. 2. प्र.4 अनु.8 खण्ड.1)

यही एक संहिता है, जिसके सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसका ब्राह्मण (तैत्तिरीय-ब्राह्मण) आरण्यक (तैत्तिरीय-आरण्यक), उपनिषद् (तैत्तिरीय-उपनिषद्), श्रौतसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि या सत्याषाढ, वैखानस, भारद्वाज), गृह्यसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि,वैखानस, भारद्वाज, अग्निवेश्य), शुल्बसूत्र 9बौधायन और आपस्तम्ब) और धर्मसूत्र (बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि) प्राप्त हैं। इसीलिए यह सर्वांगपूर्ण संहिता है।
तैत्तिरीय-संहिता का विशेष प्रचार दक्षिण भारत में हैं। आचार्य सायण की यही शाखा थी। इसलिए उन्होंने इसी शाखा सर्वप्रथम भाष्य लिखा।

(2.) मैत्रायणी-संहिताः---
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चरणव्यूह के नुसार मैत्रायणी-संहिता की सात शाखाएँ हैं---(1.) मानव, (2.) दुन्दुभ, (3.) ऐकेय, (4.) वाराह, (5.) हारिद्रवेय, (6.) श्याम, (7.) श्यामायनीय। मैत्रायणी-संहिता के प्रवर्तक आचार्य मैत्रायण या मैत्रेय थेः----”मैत्रायणी ततः शाखा मैत्रेयास्तु ततः स्मृतः।” (हरिवंशपुराण—अ. 34)

इस शाखा में मन्त्र और व्याख्या भाग (ब्राह्मण या गद्यभाग) मिश्रित है। इसमें 4 काण्ड, 54 प्रपाठक और 3144 मन्त्र हैं। इनमें से 1701 ऋचाएँ ऋग्वेद से उद्धृत हैं। इस संहिता में विभिन्न यागों का विस्तृत वर्णन है।

(3.) काठक-संहिताः---
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इस कठ-संहिता भी कहते हैं। यह चरकों की शाखा मानी जाती है। इसमें 5 खण्ड हैं---(1.) इठिमिका, (2.) मध्यमिका, (3.) ओरामिका, (4.) याज्यानुवाक्या, (5.) अश्वमेधादि अनुवचन। इसके उपखण्डों को स्थानक और अनुवचन कहा जाता है। जैनियों ने स्थानक शब्द को अपना लिया। कुल 5 खण्डों में 40 स्थानक और 13 वचन हैं, दोनों को मिलाकर 53 उपखण्ड हैं। कुल अनुवाक 843 और कुल मन्त्र 3028 हैं। मन्त्र और ब्राह्मणों की सम्मिलित संख्या 18 हजार है। इसमें 19 प्रमुख यागों का वर्णन है। कभी इस शाखा का ग्राम-ग्राम में प्रचार था। मुनि पतञ्जलि लिखते हैं कि बालक-बालक इस शाखा को जानते थेः---”ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते।” (महाभाष्य—4.3.101) आज कल यह शाखा प्रायः लुप्त हो गई है, अर्थात् इसका अधिक प्रचार नहीं है।

(4.) कपिष्ठल-संहिताः---
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प्राचीन काल में कठों की कई शाखाएँ प्रचलित थीं---कठ, प्राच्य कठ और कपिष्ठल कठ। इस शाखा के प्रवर्तक आचार्य थे---कपिष्ठल ऋषि। ये वसिष्ठ गोत्र के थे। इनका निवास स्थान कुरुक्षेत्र के पास कपिष्ठल (कैथल) नामक स्थान है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है। यह ग्रन्थ अष्टकों और अध्यायों में विभक्त है। इसके 6 अष्टक उपलब्ध हैं। कुल 48 अध्याय हैं।



!!!---: सामवेद :---!!!
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सामवेद की एक हजार शाखाएँ हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। कुछ प्रमुख शाखाएँ--- असुरायणीय, वासुरायणीय, वार्तान्तरेय, प्राञ्जल, राणायनीय, शाट्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। उपलब्ध शाखाएँ-- कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय।




सामवेदः---
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चारों वेदों में सामवेद का महत्त्व सर्वाधिक है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने स्वयं को सामवेद कहा हैः--"वेदानां सामवेदोsस्मि।" वस्तुतः जो सामवेद को जानता है, वहीं वेदों के रहस्य को जान सकता हैः---"सामानि यो वेत्ति स वेद तत्त्वम्।" (बृहद् देवता)

परिचयः--ऋग्वेद के मन्त्र (ऋक् या ऋचा) को जब विशिष्ट गान-पद्धति से गाया जाता है, तब उसे "सामन्" (साम) कहा जाता हैः--"विशिष्टा काचिद् साम्नो गीतिः सामेत्युच्यते" (पू.मी. 2.1.37,,शबर स्वामी)। पूर्वमीमांसा में ही गीति या गान को "साम" कहा गया हैः--"गीतिषु सामाख्या" (पू.मी.2.1.36)

छान्दोग्योपनिषद् (1.3.4) के अनुसार जो ऋक् है वही साम हैः--या ऋक् तत् साम" । और----"ऋचि अध्यूढं साम" (छा.उप. 1.6.1) । साम का विग्रह हैः--सा और अम। सा का अर्थ है---ऋचा और अम का अर्थ हैः--गान। दोनों मिलकर सामन् बनाः-- "सा च अमश्चेति तत् साम्नः सामत्वम्।" (बृह.उप.--1.3.22)

यजुर्वेद ने सामवेद को "प्राणतत्त्व" कहा हैः--साम प्राणं प्रपद्ये" (यजुः 36.1) "प्राणो वै साम" (श.प.ब्रा. 14.8.14.3) "स यः प्राणस्तत् साम" (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण--4.23.3)

सामवेद सूर्य का प्रतिनिधि है, अतः उसमें सौर-ऊर्जा है। जैसे सूर्य सर्वत्र समभाव से विद्यमान है, वैसे सामवेद भी समत्व के कारण सर्वत्र उपलब्ध है। सम का ही भावार्थक साम हैः---"तद्यद् एष (आदित्यः) सर्वैर्लोकैः समः तस्मादेषः (आदित्यः) एव साम।" (जै.उप.ब्रा.-1.12.5)

सामवेद सूर्य है और सामवेद के मन्त्र सूर्य की किरणें हैं, अर्थात् सामवेद से सौर-ऊर्जा मनुष्य को प्राप्त होती हैः---"(आदित्यस्य) अर्चिः सामानि" (श.प.ब्रा. 10.5.1.5)

सामवेद में साम (गीति) द्युलोक है और ऋक् पृथिवी हैः--"साम वा असौ (द्युः) लोकः ऋगयम् (भूलोकः)" (ताण्ड्य ब्रा.4.3.5)

सभी वेदों का सार सामवेद ही हैः--"सर्वेषां वा एष वेदानां रसो यत् साम" (श.प.ब्रा. 12.8.3.23 और गो.ब्रा. 2.5.7)

साम के बिना यज्ञ अपूर्ण हैः---"नासामा यज्ञोsस्ति" (श.प.ब्रा. 1.4.1.1)

सामवेद के दो मुख्य भाग हैं---(1.) पूर्वार्चिक और (2.) उत्तरार्चिक। "आर्चिक" का अर्थ हैः--ऋचाओं का समूह।

(1.) पूर्वार्चिकः--
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इसमें चार काण्ड हैं---(क) आग्नेय-काण्ड, (ख) ऐन्द्र-काण्ड, (ग) पावमान-काण्ड, और (घ) अरण्य-काण्ड। इसमें एक परिशिष्ट भी हैः--महानाम्नी आर्चिक। पूर्वार्चिक में 6 अध्याय है। इन 6 अध्यायों को खण्डित किया गया है, जिन्हें "दशति" कह जाता है। दशति का अर्थ दश ऋचाएँ हैं, परन्तु सर्वत्र 10 ऋचाएँ नहीं है, कहीं अधिक कहीं कम है।

(1.) अध्याय 1 आग्नेय-काण्ड है। इसमें 114 मन्त्र हैं। इसके देवता अग्नि है।
(2.) अध्याय 2 से 4 तक ऐन्द्र-काण्ड हैं। इसमें 352 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र है।

(3.) अध्याय 5 पावमान-काण्ड है। इसमें कुल 119 मन्त्र हैं। इसके देवता सोम है।

(4.) अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसमें कुल 55 मन्त्र हैं। इसके देवता इन्द्र, अग्नि और सोम है।

इसमें एक परिशिष्ट "महानाम्नी आर्चिक" है। इसमें 10 मन्त्र है।

इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मन्त्र हैं।

अध्याय 1 से 5 तक की ऋचाओं को "ग्राम-गान" कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि इसकी ऋचाओं का गान गाँवों में किया जाता था। अध्याय 6 अरण्य-काण्ड है। इसकी ऋचाओं का गान अरण्य (वन) में किया जाता था।

(2.) उत्तरार्चिकः---
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इसमें कुल 21 अध्याय हैं और 9 प्रपाठक हैं। इसमें कुल 400 सूक्त हैं। इसमें कुल 1225 मन्त्र हैं। दोनों को मिलाकर 650 और 1225 को मिलाकर सामवेद में कुल 1875 मन्त्र हैं।

ऋग्वेद के 1771 मन्त्र सामवेद में पुनः आएँ हैं। अतः सामवेद के अपने मन्त्र केवल 104 ही है। ऋग्वेद के 1771 मन्त्रों में से 267 मन्त्र सामवेद में पुनरुक्त हैं। सामवेद के 104 मन्त्रों में से भी 5 मन्त्र पुनरुक्त हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल पुनरुक्त मन्त्र 272 हैं। इस प्रकार सामवेद के अपने मन्त्र 99 ही हैं।

शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सामवेद में एक लाख चौवालिस हजार अक्षर हैं---"चत्वारि बृहतीसहस्राणि साम्नाम्।" (श.प.ब्रा. 10.4.2.24)

सामवेद के ऋत्विक् उद्गाता हैं। इसके मुख्य ऋषि आदित्य हैं।

सामवेद की शाखाएँ---
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मुनि पतञ्जलि के अनुसार सामवेद की 1000 शाखाएँ हैं---"सहस्रवर्त्मा सामवेदः" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इन 1000 शाखाओं में 13 नाम इस समय उपलब्ध हैं---

(1.) राणायम (राणायनि) , (2.) शाट्यमुग्र्य (सात्यमुग्रि),
(3.) व्यास,, (4.) भागुरि,, (5.) औलुण्डी,, (6.) गौल्गुलवि,,
(7.) भानुमान् औपमन्यव,, (8.) काराटि (दाराल),,,
(9.) मशक गार्ग्य (गार्ग्य सावर्णि),,(10.) वार्षगव्य (वार्षगण्य),,
(11.) कुथुम (कुथुमि, कौथुमि),, (12.) शालिहोत्र, (13.) जैमिनि।

इन 13 शाखाओं के नामों में से सम्प्रति 3 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं---(1.) कौथुमीय, (2.) राणायनीय और (3.) जैमिनीय।

सामवेद का अध्ययन ऋषि व्यास ने अपने शिष्य जैमिनि को कराया था। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने सुन्वान् को और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को सामवेद पढाया। सामवेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार व विस्तार सुकर्मा ने ही किया था। सुकर्मा के दो शिष्य थे---(क) हिरण्यनाभ कौशल्य और (ख) पौष्यञ्जि। इनमें हिरण्यनाभ का शिष्य कृत था। कृत ने एक महान् काम किया था। उसने सामवेद के 24 प्रकार के गान-स्वरों का प्रवर्तन किया। इसलिए उसके कई अनुयायी व शिष्य हुए। उनके शिष्य "कार्त" कहलाए। आज भी कार्त आचार्य पाये जाते हैं।

(1.) कौथुमीय (कौथुम) शाखाः--
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यह शाखा सम्प्रति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। कौथुमीय और राणायमीय शाखा दोनों में विशेष भेद नहीं है। दोनों में केवल गणना-पद्धति का अन्तर है। कौथुमीय-शाखा का विभाजन अध्याय, खण्ड और मन्त्र के रूप में है। राणायनीय-शाखा का विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में है। कौथुमीय-संहिता में कुल 1875 मन्त्र हैं।

इस संहिता सूत्र "पुष्पसूत्र" है। इसका ब्राह्मण "ताण्ड्य-महाब्राह्मण" है। इसे पञ्चविंश-ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसमें कुल 25 अध्याय हैं, इसलिए इसका यह नाम पडा। इसका उपनिषद् "छान्दोग्योपनिषद्" है।

(2.) राणायनीय-शाखाः--
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इस शाखा में विभाजन प्रपाठक, अर्धप्रपाठक, दशति और मन्त्र के रूप में हैं। इसकी एक शाखा सात्यमुग्रि है। इस शाखा का प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक है।

(3.) जैमिनीय-शाखाः---
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इस संहिता में कुल 1687 मन्त्र हैं। इसकी अवान्तर शाखा तवलकार है। इस शाखा से सम्बद्ध केनोपनिषद् है। तवलकार जैमिनि ऋषि के शिष्य थे।

सामवेद मुख्य रूप से उपासना का वेद है। इसमें मुख्य रूप से इन्द्र, अग्नि और सोम देवों की स्तुति की गई है। इसमें सोम और पवमान से सम्बद्ध मन्त्र सर्वाधिक है। सोम, सोमरस, देवता और परमात्मा का भी प्रतीक है। सोम से सौम्य की प्राप्ति होती है। सामगान भक्ति-भावना और श्रद्धा जागृत करने के लिए है।

स्वरः---
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सामवेद के मन्त्रों के ऊपर 1,2,3 संख्या लिखी जाती है, जो 1--उदात्त, 2--स्वरित और 3---अनुदात्त की पहचान है। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात्त के लिए कोई चिह्न नहीं होता, किन्तु सामवेद में उदात्त के लिए मन्त्र के ऊपर 1 लिखा जाता है। ऋक् के मन्त्र पर स्वरित वाले वर्ण पर खडी लकीर होती है, इसके लिए सामवेद में 2 लिखा जाता है। ऋक् में अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे पडी लकीर होती है, सामवेद में इसके लिए वर्ण के ऊपर 3 लिखा जाता है।ऋग्वेद में उदात्त के बाद अनुदात्त को स्वरित हो जाता है और स्वरित का चिह्न होता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्त वर्ण पर कोई चिह्न नहीं होता। इसी प्रकार सामवेद में चिह्न 2 के बाद यदि कोई अनुदात्त वर्ण है तो उस पर कोई अंक नहीं होगा और उसे खाली छोड दिया जाता है। ऐसे रिक्त वर्ण को "प्रचय" कहा जाता है। इसका उसका एक स्वर से (एकश्रुति) न ऊँचा न नीचा किया जाता है।

सात स्वर ये हैं---षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद।

ग्राम तीन हैः---मन्द्र (निम्न), मध्य (मध्यम) और तीव्र (उच्च)।

सामवेद से सम्बद्ध नारदीय-शिक्षा है।

सामविकारः---
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किसी भी ऋचा को गान का रूप देने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें विकार कहा जाता है। ये कुल विकार 6 हैं। इनमें स्तोभ मुख्य है। ये छः विकार हैं---(क) स्तोभ, (ख) विकार, (ग) विश्लेषण, (घ) विकर्षण, (ङ) अभ्यास, (च) विराम।

सामगान के 4 भेदः---
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(1.) ग्राम-गेय-गानः--इसे प्रकृतिगान और वेयगान भी कहा जाता है। यह गाँव में सार्वजनिक स्थलों पर गाया जाता था।

(2.) आरण्यगानः--इसे वनों में गाया जाता था। इसे रहस्यगान भी कहा जाता है।

(3.) ऊहगानः--इसका अर्थ है विचार पूर्वक विन्यास करना। पूर्वार्चिक से सम्बन्धित उत्तार्चिक के मन्त्रों का गान इस विधि से किया जाता था। इसे सोमयाग व विशेष धार्मिक अवसर पर गाया जाता था।

(4.) ऊह्य-गानः--इसे रहस्यगान भी कहा जाता है। रहस्यात्मक होने के कारण इसे साधारण लोगों में नहीं गाया जाता था। ऊहगान और ऊह्यगान विकार गान है।

शस्त्रः---
सामवेद में "शस्त्र" शब्द का प्रयोग किया है। इसका अभिप्राय है कि गान-रहित मन्त्रों के द्वारा सम्पादित स्तुति को "शस्त्र" कहा जाता है। इसी कारण ऋग्वेद के स्तुति-मन्त्र को "शस्त्र" कहा जाता है।

स्तोत्रः---
इसके विपरीत गान युक्त मन्त्रों द्वारा सम्पादित स्तुति को "स्तोत्र" कहा जाता है। सामवेद के मन्त्र "स्तोत्र" है, क्योंकि वे गेय हैं, जबकि ऋग्वेद के मन्त्र "शस्त्र" हैं।

स्तोमः--तृक् (तीन ऋचा वाले सूक्त) रूपी स्तोत्रों को जब आवृत्ति पूर्वक गान किया जाता है, तो "स्तोम" कहा जाता है।

विष्टुतिः---
विष्टुति का अर्थ है----विशेष प्रकार की स्तुति। विष्टुति स्तोत्र रूपी तृचों के द्वारा सम्पादित होती है। इसे गान के तीन पर्याय या क्रम समझना चाहिए। स्तोम के 9 भेद हैः--त्रिवृत् , पञ्चदश, सप्तदश, एकविंश, चतुर्विंश, त्रिणव, त्रयस्त्रिंश, चतुश्चत्वारिंश, अष्टचत्वारिंश।

सामगान की पाँच भक्तियाँ----
(1.) प्रस्ताव, (2.) उद्गीथ, (3.) प्रतिहार, (4.) उपद्रव और (5.) निधन। वरदराज का कहना है कि इन पाँचों में हिंकार और ओंकार जोड देने से 7 हो जाती हैं। इन मन्त्रों का गान तीन प्रकार के ऋत्विक् करते हैं---(1.) प्रस्तोता, (2.) उद्गाता और (3.) प्रतिहर्ता।



!!!---: अथर्ववेद :---!!!
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अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं-नवधाथर्वणो वेदः--- पैप्लाद, शौनक, मौद, स्तौद, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श और चारणवैद्य। उपलब्ध शाखाएँ-- पैप्लाद और शौनक।


!!---: अथर्ववेद-परिचयः :---!!!
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अथर्वः--अर्थ
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"अथर्व" शब्द का अर्थ सामान्य रूप से स्थिरता होता है, चंचलता-रहित। निरुक्त के अनुसार अथर्व शब्द में "थर्व" धातु है, जिसका अर्थ है--गति या चेष्टा। इस प्रकार अथर्वन् का अर्थ हुआ गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है---"अथर्वाणोsथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः।" (निरुक्तः--11.18)

गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार अथर्वन् (अथर्वा) शब्द "अथर्वाक्" का संक्षिप्त रूप है। अथ+अर्वाक्=अथर्वा। तदनुसार अर्थ हुआ--समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश देता हैः--"अथ अर्वाग् एनं....अन्विच्छेति, तद् यद् अब्रवीद् अथार्वाङ् एनमेतासु अप्सु अन्विच्छेति तदथर्वाsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः-1.4) अथर्ववेद में ऐसे अनेक सूक्त हैं, जिनमें आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या का उपदेश किया गया है।

अथर्ववेद का दार्शनिक रूपः---
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शतपथ-ब्राह्मण (6.4.2.2) के अनुसार अथर्वा प्राण हैः--"प्राणोsथर्वा।" इसका अभिप्राय है कि प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करना और प्राणायाम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति करना।

गोपथ-ब्राह्मण (1.4) के अनुसार आत्मा-तत्त्व को अपने अन्दर देखने की बात कही गई है। उसे प्राप्त करना अथर्वा का लक्ष्य है। अथर्ववेद "चान्द्र-वेद" है। इसका सम्बन्ध चन्द्रमा से है। चन्द्रमा की विशेषता ज्योति और शीतलता प्रदान करना है। अथर्ववेद ठीक यही काम करता है। ऋग्वेद आग्नेय-प्रधान है, तो अथर्ववेद सोम-प्रधान (सोम-तत्त्व-प्रधान) है। यदि ऋग्वेद ऊष्मा, प्रगति और स्फूर्ति देता है तो अथर्ववेद शान्ति, सामंजस्य, सद्भावना औस सोमीय गुणों का आधान करता है, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति हो सके।

अथर्ववेद के अन्य नामः--
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(1.) अथर्ववेदः--
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अथर्वन् ऋषि के नाम पर इस वेद काम "अथर्वा" पडा। इस वेद अथर्वा ऋषि और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन हैः--स आथर्वणो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.5)

(2.) आङ्गिरस वेदः--
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अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट होने के कारण इस वेद का नाम "आङ्गिरस" वेद नाम पडा---स आङ्गिरसो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मण--1.8) और (शतपथ-ब्राह्मणः--13.4.3.8)

(3.) अथर्वाङ्गिरस वेदः---
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यह प्राचीन नाम है। इस वेद अथर्वा और अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा सर्वाधिक दृष्ट मन्त्रों का संकलन है। अतः इस वेद का नाम "अथर्वाङ्गिरस-वेद" नाम पडाः--अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।" (अथर्ववेदः--10.7.20)

(4.) ब्रह्मवेदः---
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इसका एक प्राचीन नाम ब्रह्मवेद भी है। अथर्ववेद में ही इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया हैः--"तमृचश्च सामानि च यजूंषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।" (अथर्ववेदः--15.5.6) गोपथ-ब्राह्मण (1.2.16) में भी इसे ब्रह्मवेद कहा गया हैः--"ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।"

(5.) भृग्वङ्गिरो वेदः---
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ग्वङ्गिराः और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट अनेक मन्त्र इस वेद में है। इसलिए उनके नाम पर इस वेद का नाम "भृग्वङ्गिरो वेद" नाम पडाः--"ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोवित्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.3.1)

(6.) क्षत्रवेदः---
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शतपथ-ब्राह्मण (14.8.14.2 से 4 तक) में इस वेद को "क्षत्रवेद" कहा गया हैः--"उक्थं यजुः...साम...क्षत्रं वेद।" इस वेद में राजाओं और क्षत्रियों का विशेषतया वर्णन है।

(7.) भेषज्य वेदः---
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इस वेद में आयुर्वेद, चिकित्सा एवं ओषधियों आदि का विस्तृत वर्णन है, अतः इसे "भैषज्य-वेद" कहा गया हैः--"ऋचः सामानि भेषजा। यजूंषि।" (अथर्ववेदः---11.6.14) यहाँ इसे भेषजा (भेषजानि) कहा गया है।

(8.) छन्दो वेदः---
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अथर्ववेद का एक प्राचीन नाम "छन्दोवेद" या "छान्दस्" है। छन्द-प्रधान होने के कारण इसका यह नाम दिया गया हैः---"(क) ऋचः सामानि छन्दांसि...यजुषा सह।" (अथर्ववेदः--11.7.24) (ख) "छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्..." (ऋग्वेदः--10.90.9) और यजुर्वेदः--31.7)

(9.) महीवेदः--
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अथर्ववेद में इसका एक नाम "महीवेद" भी प्राप्त होता है। इसमें महती ब्रह्मविद्या का वर्णन किया गया है या इसमें मही-सूक्त है। मही पृथिवी को कहा जाता हैः--ऋचः साम यजुर्मही। (अथर्ववेदः--10.7.14)। इसमें पृथिवी को मही माता कहा गया हैः--"माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः।"

शाखाएँः---
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महाभाष्य के पस्पशाह्निक में मुनि पतञ्जलि ने अथर्ववेद की 9 शाखाएं बताई हैं---"नवधाssथर्वणो वेदः"। ये 9 शाखाएँ हैः---(1.) पैप्लाद, (2.) तौद, (3.) मौद, (4.) शौनकीय, (5.) जाजल, (6.) जलद, (7.) ब्रह्मवद, (8.) देवदर्श और (9.) चारणवैद्य। आथर्वण-परिशिष्ट और चरणव्यूह में तौद के स्थान पर स्तौद नाम है। इन 9 शाखाओं में सम्प्रति केवल 2 शाखाएँ उपलब्ध हैं---(1.) शौनकीय ऍर (2.) पैप्लाद।

वेद व्यास ने अपने शिष्य सुमन्तु को अथर्ववेद का अध्ययन कराया था। सुमन्तु को "दारुण-मुनि" भी कहा जाता है। सुमन्तु का शिष्य कबन्ध था। उसके दो अन्य शिष्य थेः---पथ्य और वेददर्श। कहीं-कहीं वेददर्श के स्थान पर देवदर्श नाम प्राप्त होता है। महानारायणीयोपनिषद् इसी देवदर्शी नामक शाखा से सम्बन्धित है। पथ्य के तीन शिष्य थेः--जाजलि, कुमुद और शौनक। दूसरी ओर देवदर्श की चार शिष्य थेः--मोद, ब्रह्मबलि, पिप्पलाद और शौष्कायनि (शौक्लायनि) । इनमें शौनक के शिष्य बभ्रु तथा सैन्धवायन बताये जाते हैं। इन दोनों शिष्यों ने अथर्ववेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। इसी कारण इनके गुरु शौनक की शाखा सुरक्षित रही।

(1.) शौनकीय-शाखाः--
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सम्प्रति प्रचलित अथर्ववेद "शौनकीय-शाखा" ही है। इस संहिता में 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्र हैं। इसका सबसे बडा काण्ड 20 वाँ काण्ड है, जिसमें 958 मन्त्र है। इसका सबसे छोटा काण्ड 17 वाँ काण्ड है, जिसमें केवल 30 मन्त्र हैं। इस वेद में गद्य और पद्य दोनों प्रकार के मन्त्र हैं। इसी वेद पर ब्राह्मण "गोपथ-ब्राह्मण" उपलब्ध है।

(2.) पैप्पलाद-शाखाः---
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इस शाखा का प्रचार काश्मीर में अधिक है। यह संहिता अपूर्ण है। भाष्यकार पतञ्जलि इसी शाखा को मानने वाले थे। इसीलिए महाभाष्य के प्रारम्भ में अथर्ववेद का प्रथम मन्त्र "ओम् शन्नो देवीरभिष्टय..." दिया है। शौनकीय-शाखा में इस मन्त्र का स्थान हैः--1.6.1, जबकि अथर्ववेद (शौनक) का प्रथम मन्त्र हैः--"ये त्रिषप्ताः परियन्ति...."।
इस प्रमाण से पता चलता है कि महर्षि पतञ्जलि के समय सम्पूर्ण पैप्पलाद-संहिता उपलब्ध थी। पिप्पलाद ऋषि बहुत बडे विद्वान् ऋषि थे। इनके पास सुकेशा, भारद्वाजादि छः ऋषि समित्पाणि होकर आत्मविद्या (ब्रह्मविद्या) सीखने आये थे। इनका विशेष उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में मिलता है। इस शाखा में भी 20 काण्ड ही है। इसके ब्राह्मण में आठ अध्याय हैं। इस शाखा की प्रति सम्प्रति काश्मीर की शारदा लिपि में उपलब्ध है।

उपवेदः---
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अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद माना जाता है। गोपथ-ब्राह्मण (1.1.10) के अनुसार अथर्ववेद के पाँच उपवेद हैः---"पञ्च वेदान् निरमिमीत--सर्पवेदम्, पिशाचवेदम्, असुरवेदम्, इतिहासवेदम्, पुराणवेदमिति।"

अथर्ववेद का मुख्य ऋषि अङ्गिरा हैं। इस वेद का अध्वर्यु ब्रह्मा है।

यज्ञ में ब्रह्मा का महत्त्वः---ऋग्वेद में चार ऋत्विजों में ब्रह्मा को मब्रह्मविद्या के उपदेशार्थ प्रतिष्ठित किया गया हैः--"ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्...।" (ऋग्वेदः--10.71.11) चारों वेदों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि ब्रह्मा के बिना यज्ञ संभव हो। यज्ञ ही ऋग्वेद का आधार है। ब्रह्मा के लिए अथर्ववेदवित् होना अनिवार्य है। इस प्रकार यज्ञ और ब्रह्मा परस्पर अनुस्यूत हैं। जहाँ ब्रह्मा है, वहाँ अथर्ववेद भी है।

अथर्ववेद के सूक्तः---
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अथर्ववेद में अनेक प्रसिद्ध सूक्त हैं, जिनके यहाँ नाममात्र दिये जा रहे हैंः---
(1.) पृथिवी-सूक्त (भूमि-सूक्त)-12.1, (2.) ब्रह्मचर्य-सूक्त---(11.5), (3.) काल-सूक्त---(11.53 और 54), (4.) विवाह-सूक्त--(14 वाँ काण्ड) (5.) व्रात्य-सूक्त--(15 वाँ काण्ड--सूक्त 1 से 18), (6.) मधुविद्या-सूक्त---काण्ड 9 सूक्त 1), (7.) ब्रह्मविद्या-सूक्त--अनेक स्थल पर उपलब्ध है।





********ब्राह्मण*********

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः-----
शुक्ल-यजुर्वेदः--शतपथ।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल।

3.सामवेदः---
प्रौढ, षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, उपनिष्द, संहितोपनिषद्, वंश और जैमिनीय।

4.अथर्ववेदः---
गोपथ।


*********आरण्यक********

1.ऋग्वेदः---
ऐतरेय और शाङ्खायन।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--तैत्तिरीय और मैत्रायणी।

3.सामवेदः---
छान्दोग्य।

***********उपनिषद्**********

प्रमुख उपनिषद् ग्यारह हैं---ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर।

1.ऋग्वेदः----
ऐतरेय।

2.यजुर्वेदः----
शुक्ल-यजुर्वेदः--ईश और बृहदारण्यक।
कृष्ण-यजुर्वेदः--कठ, तैत्तिरीय और श्वेताश्वतर।

3.सामवेदः----
केन और छान्दोग्य।

4.अथर्ववेदः-----
प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य।


**************वेदाङ्ग************

कुल वेदाङ्ग छः हैं--- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

1.शिक्षा----
पाणिनीया
ऋक्लक्षण
याज्ञवल्क्य
वाशिष्ठी
माण्डव्य
भरद्वाज
अवसान निर्णय
नारदीय
माण्डूकी
शौनकीया प्रातिशाख्या
अथर्ववेद प्रा.
पुष्यसूत्र प्रा.
वाजसनेयी प्रा.
तैत्तिरीय प्रा.
माध्यन्दिनि शिक्षा।


2.कल्पः----

कल्प चार हैं--- श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र, धर्म-सूत्र और शुल्ब-सूत्र।

(क)श्रौत-सूत्रः----
आशवलायन
कौषीतकि
कात्यायन
बोधायन
आपस्तम्ब
भारद्वाज
कठ
जैमिनीय
खादिर
द्राह्यायण
लाट्यायन
वाधूल
वैतान।

(ख)गृह्य-सूत्रः---
आश्वलायन
शाङ्खायन
शाम्बव्य
कात्यायन
कठ
आपस्तम्ब
बोधायन
वैखानस
भारद्वाज
वाधूल
जैमिनीय
गोभिल
गौतम
कौशिक।

(ग)धर्म-सूत्रः----
वशिष्ठ
हारीत
शङ्ख
विष्णु
आपस्तम्ब
बोधायन
हिरण्यकेशी
वैखानस
गौतम।

(घ)शुल्ब-सूत्रः-----
कात्यायन
मानव
बोधायन
आपस्तम्ब
मैत्रायणी
वाराह
वाधूल।


3.व्याकरणम्----

इन्द्र
चन्द्र
काशकृत्स्न
आपिशलि
पाणिनि
अमर
जैनेन्द्र।

4.निरुक्तम्----

आचार्य यास्क


5.छन्दः------

छन्दःसूत्रः--आचार्य पिङ्गल


6.ज्योतिष्------

आर्च ज्योतिष्
याजुष् ज्योतिष्।


******************उपाङ्ग********************

इन्हें शास्त्र और दर्शन भी कहा जाता है। ये कुल छः हैं---
1.न्याय--गोतम

2.वैशेषिक--कणाद

3.साङ्ख्य--कपिल

4.योग--पतञ्जलि

5.पूर्व-मीमांसा--जैमिनि

6.उत्तर-मीमांसा(ब्रह्मसूत्र)--व्यास।






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